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kele ki kheti

किसान करे कैवेंडिश केले समूह के केले की खेती, शानदार कमाई के बाद भूल जायेंगे धान-गेहूं उपजाना

किसान करे कैवेंडिश केले समूह के केले की खेती, शानदार कमाई के बाद भूल जायेंगे धान-गेहूं उपजाना

केले की खेती (Kele ki kheti / Banana Farming) एक ऐसी चीज है जिस पर आपको विचार करना चाहिए। यदि आप कम जमीन होने के बावजूद भी महत्वपूर्ण लाभ कमाना चाहते हैं, तो कैवेंडिश (Cavendish banana) समूह के केलों की खेती करना शुरू कर दें। केले की खेती कभी दक्षिण भारत तक सीमित थी, लेकिन अब यह उत्तर भारत में व्यापक रूप से प्रचलित हो रही है। एक हेक्टेयर में केले की खेती से करीब 8 लाख रुपये का मुनाफा कमाया जा सकता है। बाजार में सुपरफूड की मांग काफी बढ़ गई है। किसान अब धान-गेहूं और अन्य फसलों कि जगह फल और फूलों की खेती करने लगे हैं, ऐसे में केले की खेती कर किसान अपनी उपज पर अधिक फायदा प्राप्त कर सकते हैं। केले विटामिन, खनिज, फाइबर और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होते हैं, और इनमें वसा की मात्रा भी कम होती है। किसान केले कि खेती में अधिक रुचि ले रहे हैं क्योंकि बाजार में इसकी मांग बहुत ही तेजी से बढ़ रहीं हैं।

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कॉवेंडिश या कैवेंडिश समूह का केला, जो ड्रिप सिंचाई और अत्याधुनिक तकनीक के माध्यम से प्रति इकाई क्षेत्र में उपज पर काफ़ी ज्यादा लाभ देता है। किसानों द्वारा कैवेंडिश केले को अब लगभग 60% क्षेत्र में उगाया जा रहा है, इसका मुख्य कारण पनामा विल्ट रोग (Panama disease or Fusarium wilt or Bana Wilt) के प्रति इसकी प्रतिरोध क्षमता है और यह अन्य केलों के समूह की तुलना में कहीं अधिक उत्पादन करता है। भारत में केले की लगभग 20 प्रजातियां उगाई जाती हैं।

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केले की लगभग 1000 से अधिक किस्मों को दुनिया भर में उगाया जाता है। कॉवेंडिश समूह का केला अपने छोटे तनों के कारण, तूफान से होने वाले नुकसान जैसे पर्यावरणीय कारकों के प्रति कम संवेदनशील होते हैं और प्रति हेक्टेयर उच्च पैदावार देते हैं। कॉवेंडिश केले के पौधे प्राकृतिक आपदाओं से तेजी से उबरने के लिए भी प्रसिद्ध है। कैवेंडिश केले का वार्षिक वैश्विक उत्पादन लगभग 50 बिलियन टन है। आम के बाद केला भारत की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण फलों में से एक है, लगभग 14.2 मिलियन टन के वार्षिक उत्पादन के साथ, भारत केले के उत्पादन में दुनिया में सबसे आगे है। कॉवेंडिश समूह का केले की इस प्रजाति को पारंपरिक रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर-पूर्वी राज्यों में उगाया जाता है।

कैवेंडिश समूह की किस्म ग्रैंड नैने (एएए) की करें खेती

केले के प्रसिद्ध कैवेंडिश समूह की एक किस्म को "ग्रैंड नैने (एएए)" कहा जाता है। यह एक उच्च उपज देने वाली किस्म है। इसका पौधा 6.5 से 7.5 फीट की ऊंचाई तक बढ़ता है। ग्रैंड नैन केले किस्म के फल खाने में बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं और इसकी फलों की गुणवत्ता हमारी देशी किस्मों के केलों की तुलना में अधिक होती है।

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1990 के दौरान यह प्रजाति भारत में आई थी, इस प्रजाति के आते ही बसराई और रोबस्टा प्रजाति का विस्थापन होना शुरू हो गया। कैवेंडिश किस्म का यह केला महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसानों के बीच बेहद पसंद किया जाता है, इस प्रजाति के पौधे 12 महीनों में परिपक्व हो जाते हैं और 2.2 से 2.7 मीटर की ऊंचाई तक पहुंचते हैं। इसकी खेती कर किसान कम समय में अधिक मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। केले पहले केवल दक्षिण भारत में उगाए जाते थे, लेकिन अब वे उत्तर भारत में भी उगाए जा रहे हैं। केले की खेती करने वाला किसान पारंपरिक खेती जैसे गेहूं-धान-गन्ना की खेती करना छोड़ ही देता है, क्योंकि केले की खेती से एक वर्ष में होने वाले लाभ को कई वर्षों तक गेहूं-धान-गन्ना के खेती से पूरा नहीं किया जा सकता है।

केले कब और कैसे उगाए जाते हैं?

जून-जुलाई का महीना केले लगाने का सबसे अच्छा समय है, कुछ किसान इसे अगस्त तक लगाते हैं। इसे जनवरी और फरवरी में भी उगाया जाता है। यह फसल 12-14 महीने में पूरी तरह से पक जाती है। केले के पौधे को लगभग 8*4 फीट की दूरी पर लगाना चाहिए और ड्रिप सिंचाई का उपयोग करना चाहिए। एक हेक्टेयर में 3000 तक केले के पौधे लगाए जाते हैं। केले के पौधे नम वातावरण में पनपते हैं और उनमें अच्छी तरह विकसित होते हैं। जब केले में फल लगने लगे तो फलों की सुरक्षा के लिए सावधानी बरतनी चाहिए ताकि वे गंदे न हों और कीड़े नही लगे इसका ध्यान रखना चाहिए, केला बीजों से नहीं बल्कि पौधे को लगा कर इसकी खेती की जाती है। केले के पौधे आपको कई जगहों पर मिल जाएंगे आप इसे नर्सरी कृषि विज्ञान केंद्र से आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, दूसरा आप केले की उन्नत किस्में प्रदान करने वाली कंपनियों से सीधे बात कर सकते हैं, जो आपके घर तक केले के पौधे पहुंचाएगी।

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वहीं सभी राज्य सरकारें भी केले की खेती को बढ़ावा देने के लिए पौधे उपलब्ध कराती हैं इसलिए आप अपने जिले के कृषि विभाग से भी संपर्क कर सकते हैं, तो आप यदि एक नया कृषि व्यवसाय शुरू करने के इच्छुक हैं और अन्य फसलों के उपज पर मुनाफा अर्जित नही होने से परेशान हैं तो केले की खेती आपके लिए एक बेहतर विकल्प हो सकता है। यह उपजाने में आसान और मुनाफे के मामले में गजब फायदा देने वाला है। अन्य कृषि व्यवसायों की तरह वाणिज्यिक केले की खेती के लिए बड़े निवेश की आवश्यकता भी नहीं होती है।
बाजार भेजने से पूर्व केले को कैसे तैयार करें की मिले अधिकतम लाभ?

बाजार भेजने से पूर्व केले को कैसे तैयार करें की मिले अधिकतम लाभ?

आभासी तने से केले की कटाई के उपरांत , केले को बंच से अलग अलग हथ्थे में अलग करते है। इसके बाद इन हथ्थों को फिटकरी के पानी की टंकी में डालें @ 1 ग्राम फिटकरी प्रति 2.5 लीटर पानी की दर से मिलाते है। केले के इन हथ्थों को लगभग 3 मिनट के लिए डुबाने के बाद निकल लें। फिटकरी के घोल की वजह से केले के छिलकों के ऊपर के प्राकृतिक मोम हट जाती है एवं साथ साथ फल के ऊपर लगे कीड़ों के कचरे भी साफ हो जाते हैं। यह एक प्राकृतिक कीटाणुनाशक के रूप में कार्य करता है। इसके बाद दूसरे टैंक में एंटी फंगल लिक्विड हुवा सान (Huwa San), जिसके अंदर लिक्विड सिल्वर कंपोनेंट्स के साथ हाइड्रोजन पेरोक्साइड होता है जो एंटीफंगल के रूप में काम करता है,जो फंगस को बढ़ने नहीं देता है।

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विदेशों में बढ़ी देसी केले की मांग, 327 करोड़ रुपए का केला हुआ निर्यात हुवा सान एक बायोसाइड है एवं सभी प्रकार के बैक्टीरिया, वायरस, खमीर, मोल्ड और बीजाणु बनाने वालों के खिलाफ प्रभावी है। लीजियोनेला न्यूमोफिला के खिलाफ भी प्रभावी है। पर्यावरण के अनुकूल - व्यावहारिक रूप से पानी और ऑक्सीजन के लिए 100% अपघट्य हो जाता है। इसके प्रयोग से गंध पैदा नहीं होता है , उपचारित खाद्य पदार्थों के स्वाद को नहीं बदलता है। बहुत अधिक पानी के तापमान पर भी प्रभावशीलता और दीर्घकालिक प्रभाव देखे जाते हैं। अनुशंसित खुराक दर पर खपत के लिए सुरक्षित के रूप में मूल्यांकन किया गया। कोई कार्सिनोजेनिक या उत्परिवर्तजन प्रभाव नहीं, अमोनियम-आयनों के साथ प्रतिक्रिया नहीं करता है। इसे लम्बे समय तक भंडारित किया जा सकता है। 3% अनुशंसित दर पर प्रयोग करने से किसी भी प्रकार का कोई भी दुष्प्रभाव नहीं देखा गया है। इस घोल में केला के हथ्थों को 3 मिनट के लिए डूबाते है। हुवा सान @ 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर , घोल बनाते है। इस तरह से 500 लीटर पानी के टैंक में 250 मिलीलीटर हुवा सैन तरल डालते है । इन घोल से केले को निकालने के बाद केले से अतिरिक्त पानी निकालने के लिए केले को उच्च गति वाले पंखे से अच्छे ड्रेनेज फ्लोर पर जाली की सतह पर रखें। इस प्रकार से केले की प्रारंभिक तैयारी करते है। विशेष तौर से तैयार डिब्बों में पैक करते है। इस प्रकार से तैयार केलो को आसानी से दुरस्त या विदेशी बाज़ार में भेजते है।

हुवा-सैन क्या है?

हाइड्रोजन पेरोक्साइड और सिल्वर स्टेबलाइजर के संयोजन की प्रक्रिया दुनिया भर में अद्वितीय है और मूल हुवा-सैन तकनीक पर आधारित है, जिसे पिछले 15 वर्षों में रोम टेक्नोलॉजी में और विकसित किया गया था।

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यह तकनीक अद्वितीय है क्योंकि पेरोक्साइड को स्थिर करने के लिए एसिड जैसे किसी अन्य स्थिरीकरण एजेंट की आवश्यकता नहीं होती है। यह सब Huwa-San Technology के उत्पादों को गैर-अवशिष्ट और अत्यंत शक्तिशाली कीटाणुनाशक बनाता है।हुवा-सैन एक वन स्टॉप बायोसाइडल उत्पाद है जो बैक्टीरिया, कवक, खमीर, बीजाणुओं, वायरस और यहां तक ​​कि माइकोबैक्टीरिया के खिलाफ प्रभावी है और इसलिए इस उत्पादों को वाष्पीकरण के माध्यम से पानी, सतहों, औजारों और यहां तक ​​कि बड़े खाली क्षेत्रों को कीटाणुरहित करने के लिए कई क्षेत्रों में उपयोग किया जा सकता है। पिछले 15 वर्षों में, हुवा-सैन उत्पादों का प्रयोगशाला पैमाने पर और दुनिया भर में कई फील्ड परीक्षणों पर बड़े पैमाने पर परीक्षण किया गया था। तकनीकी ज्ञान के साथ हुवा-सैन के व्यापक अनुप्रयोग स्पेक्ट्रम के भीतर जानकारी की प्रचुरता विश्वव्यापी सफलता की कुंजी रही है। Huwa-San को लैब और फील्ड टेस्ट सेटिंग्स में पूरी तरह से शोध और विकसित किया गया है ,यह पूर्णतया सुरक्षित है और ये नतीजतन, हुवा-सैन उत्पाद कीटाणुशोधन के लिए नवीनतम मानकों को पूरा करते हैं ।

सितंबर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से बिहार एवम उत्तर प्रदेश में केला की खेती में थ्रिप्स का बढ़ता आक्रमण कैसे करें प्रबंधन?

सितंबर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से बिहार एवम उत्तर प्रदेश में केला की खेती में थ्रिप्स का बढ़ता आक्रमण कैसे करें प्रबंधन?

सितम्बर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से हो रही वर्षा के कारण से वातावरण में अत्यधिक नमी देखी जा रही है , इस वजह से केला में थ्रिप्स का आक्रमण कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है। पहले यह कीट माइनर कीट माना जाता था। इससे कोई नुकसान कही से भी रिपोर्ट नही किया गया था। लेकिन विगत दो वर्ष एवं इस साल अधिकांश प्रदेशों से इस कीट का आक्रमण देखा जा रहा है। पत्तियों के गब्हभे के अंदर थ्रिप्स पत्तियों को खाते रहते है एवं डंठल (पेटीओल्स ) की सतह पर विशिष्ट गहरे, वी-आकार के निशान दिखाई देते हैं। घौद में जब केला पूरी तरह से विकसित हो जाती हैं तो थ्रिप्स के लक्षण जंग के रूप में दिखाई देते हैं। थ्रीप्स पत्तियों पर, फूलों पर एवं फलों पर नुकसान पहुंचाते है ,पत्तियों का थ्रिप्स (हेलियनोथ्रिप्स कडालीफिलस ) के खाने की वजह से पहले पीले धब्बे बनते है जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और इस कीट की गंभीर अवस्था में प्रभावित पत्तियां सूख जाती हैं। इस कीट के वयस्क फलों में अंडे देते है एवं इस कीट के निम्फ फलों को खाते हैं। अंडा देने के निशान और खाने के धब्बे जंग लगे धब्बों में विकसित हो जाते हैं जिससे फल टूट जाते हैं। गर्मी के दिनों में इसका प्रकोप अधिक होता है। जंग के लक्षण पूर्ण विकसित गुच्छों में दिखाई देते हैं। पूवन, मोन्थन, सबा, ने पूवन और रस्थली (मालभोग)जैसे केलो में इसकी वजह से खेती बुरी तरह प्रभावित होता हैं। फूल के थ्रिप्स (थ्रिप्स हवाईयन्सिस ) वयस्क और निम्फ केला के पौधे में फूल निकलने से पहले फूलों के कोमल हिस्सों और फलों पर भोजन करती हैं और यह फूल खिलने के दो सप्ताह तक भी बनी रहती है। वयस्क और निम्फल अवस्था में चूसने से फलों पर काले धब्बे बन जाते हैं,जिसकी वजह से बाजार मूल्य बहुत ही कम मिलता है,जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।

पहचान

केला में लगने वाला थ्रिप्स बेहद छोटे कीड़े होते हैं, जिनकी लंबाई आमतौर पर लगभग 1-2 मिमी होती है। उनके शरीर पतले, लम्बे होते हैं और आमतौर पर पीले या हल्के भूरे रंग के होते हैं। उनके पंखों पर लंबे बाल होते हैं, जो उन्हें एक विशिष्ट रूप देते हैं। केले के थ्रिप्स की पहचान करना उनके आकार के कारण चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन केले के पौधे की पत्तियों और फलों की बारीकी से जांच करने से उनकी उपस्थिति का पता चल सकता है।

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जीवन चक्र

प्रभावी प्रबंधन के लिए केले के थ्रिप्स के जीवन चक्र को समझना आवश्यक है। ये कीड़े एक साधारण कायापलट से गुजरते हैं, जिसमें अंडा, लार्वा, प्यूपा और वयस्क चरण शामिल होते हैं। अंडे देने की अवस्था: मादा थ्रिप्स अपने अंडे केले के पत्तों, कलियों या फलों के मुलायम ऊतकों में देती हैं। अंडों को अक्सर एक विशेष ओविपोसिटर का उपयोग करके पौधों के ऊतकों में डाला जाता है। लार्वा चरण: एक बार अंडे सेने के बाद, लार्वा पौधे के ऊतकों को खाते हैं, जिससे नुकसान होता है। वे छोटे और पारभासी होते हैं, जिससे उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। प्यूपा अवस्था: प्यूपा अवस्था एक गैर-आहार अवस्था है जिसके दौरान थ्रिप्स वयस्कों में विकसित होते हैं। वयस्क अवस्था: वयस्क थ्रिप्स प्यूपा से निकलते हैं और उड़ने में सक्षम होते हैं। वे कोशिकाओं को छेदकर और रस निकालकर पौधे के ऊतकों को खाते हैं, जिससे पत्तियाँ विकृत हो जाती हैं और फलों पर निशान पड़ जाते हैं।

केले के थ्रिप्स से होने वाली क्षति

केले के थ्रिप्स विभिन्न विकास चरणों में केले के पौधों को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचा सकते हैं जैसे...

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भोजन से होने वाली क्षति: थ्रिप्स पौधों की कोशिकाओं को छेदकर और उनकी सामग्री को चूसकर खाते हैं। इस भोजन के कारण पत्तियाँ विकृत हो जाती हैं, जिनमें चांदी जैसी धारियाँ और नेक्रोटिक धब्बे होते हैं। इससे फलों पर दाग पड़ सकते हैं, जिससे वे बिक्री के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं। वायरस के वेक्टर: केले के थ्रिप्स, बनाना स्ट्रीक वायरस और बनाना मोज़ेक वायरस जैसे पौधों के वायरस को प्रसारित कर सकते हैं, जो केले की फसलों पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकते हैं। प्रकाश संश्लेषण में कमी: व्यापक थ्रिप्स खिलाने से पौधे की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम हो सकती है, जिससे विकास और उपज कम हो सकती है।

केला की खेती में थ्रीप्स को कैसे करें प्रबंधित ?

केला की खेती के लिए सदैव प्रमाणित स्रोतों से ही स्वस्थ रोपण सामग्री लें ।मुख्य केले के पौधे के आस पास उग रहे सकर्स को हटा दें। परित्यक्त वृक्षारोपण क्षेत्रों को हटा दें क्योंकि ये कीट फैलने के स्रोत के रूप में काम करते हैं। इसके अतरिक्त निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

विभिन्न कृषि कार्य

छंटाई: थ्रिप्स की आबादी को कम करने के लिए नियमित रूप से संक्रमित पत्तियों और पौधों के अवशेषों की कटाई छंटाई करें और हटा दें। बंच को ढके: थ्रिप्स के संक्रमण को रोकने के लिए विकसित हो रहे गुच्छे पॉलीप्रोपाइलीन से ढक दें । उचित सिंचाई: जल-तनाव वाले पौधों से बचने के लिए लगातार और उचित सिंचाई बनाए रखें, जो थ्रिप्स क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। स्वच्छ रोपण सामग्री: सुनिश्चित करें कि रोपण सामग्री थ्रिप्स और अन्य कीटों से मुक्त हो।

जैविक नियंत्रण

शिकारी और परजीवी: थ्रिप्स कीट की आबादी को नियंत्रित करने में मदद करने के लिए, शिकारी घुन और परजीवी ततैया जैसे थ्रिप्स के प्राकृतिक दुश्मनों के विकास को बढ़ावा दें। मिट्टी में थ्रिप्स प्यूपा को मारने के लिए, ब्यूवेरिया बेसियाना 1 मिली प्रति लीटर का तरल का छिड़काव करें।

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रासायनिक नियंत्रण

कीटनाशक: थ्रिप्स संक्रमण के प्रबंधन के लिए नियोनिकोटिनोइड्स और पाइरेथ्रोइड्स सहित कीटनाशकों का उपयोग किया जा सकता है। हालाँकि, अति प्रयोग से प्रतिरोध हो सकता है और गैर-लक्षित जीवों को नुकसान पहुँच सकता है। थ्रीप्स के प्रबंधन के लिए छिड़काव फूल निकलने के एक पखवाड़े के भीतर किया जाना चाहिए। जब फूल सीधी स्थिति में हो तो 2 मिली प्रति लीटर पानी में इमिडाक्लोप्रिड के साथ फूल के डंठल में इंजेक्शन भी प्रभावी होता है। केला के बंच( गुच्छों),आभासी तना और सकर्स को क्लोरपाइरीफॉस 20 ईसी, 2.5 मिली प्रति लीटर का छिड़काव करना चाहिए।

निगरानी और शीघ्र पता लगाना

थ्रिप्स संक्रमण के लक्षणों के लिए केले के पौधों की नियमित निगरानी करें। शीघ्र पता लगाने से समय पर हस्तक्षेप करने से कीट आसानी से प्रबंधित हो जाता है।

कीट प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन

केले की कुछ किस्मों में थ्रिप्स संक्रमण की संभावना कम होती है। प्रतिरोधी किस्मों का चयन एक प्रभावी दीर्घकालिक रणनीति हो सकती है।

फसल चक्र

थ्रिप्स के जीवन चक्र को बाधित करने और उनकी संख्या कम करने के लिए केले की फसल को गैर-मेजबान पौधों के साथ बदलें।

जाल फसलें

जाल वाली फसलें लगाएं जो थ्रिप्स को मुख्य फसल से दूर आकर्षित करती हैं और जिनका कीटनाशकों से उपचार किया जा सकता है।

एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम)

एक समग्र दृष्टिकोण अपनाएं जो पर्यावरणीय प्रभाव को कम करते हुए केले के थ्रिप्स के प्रबंधन के लिए विभिन्न रणनीतियों को जोड़ती है। अंततः कह सकते है की केले की खेती के लिए केले के थ्रिप्स एक महत्वपूर्ण खतरा हैं, जो भोजन के माध्यम से और हानिकारक वायरस के संचरण दोनों के माध्यम से सीधे नुकसान पहुंचाते हैं। प्रभावी प्रबंधन के लिए सावधानीपूर्वक निगरानी और शीघ्र हस्तक्षेप के साथ-साथ कृषि, जैविक और रासायनिक नियंत्रण उपायों के संयोजन की आवश्यकता होती है। केले की फसल के स्वास्थ्य को संरक्षित करते हुए थ्रिप्स क्षति को कम करने के लिए आईपीएम जैसी स्थायी प्रथाएं आवश्यक हैं।

केले की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

केले की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

आज हम केले की फसल के बारे में बात करने जा रहे हैं हमारे यूजर  ने पूछा था कि केला की फसल के बारे में जानकारी दें तो पहले तो हम अपने सभी रीडर को धन्यवाद कहना चाहेंगे जिनका हमें इतना प्यार और सहयोग मिल रहा है आप सभी का दिल से धन्यवाद. केला यह ऐसी फसल है जिससे पैसे के साथ-साथ आपको तंदुरुस्ती और ऊर्जा मिलती है. हमारे शरीर के लिए जो भी विटामिन जरूरी होती हैं वह हमें केले से मिल जाती है केले का यूज़ हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी काम आता है जैसे मिल्क से बनाना शेक,चिप्स, जैम और भी बहुत तरह की चीजें बनती हैं केले के पेड़ थैला और रस्सी भी बनती है. कहने का तात्पर्य है कि केले का हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है. केला ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल है तो इस वजह से उसकी देखरेख भी उतनी ही करनी होती है जितना केले से फायदा हो सकता है उतना ही जल्दी अगर उसकी देखरेख ढंग से ना हुई हो तो नुकसान हो सकता है इसलिए उसकी सुरक्षा भी बहुत जरूरी है चाहे वह मौसम से हो चाहे वह कीड़ों से हो. इस फसल में कीड़े भी बहुत लगते हैं इस को बचाने के लिए हमें खेत को साफ रखना चाहिए और ध्यान रहे कि इसकी फसल को ढंग से हवा और पानी की निकासी की समुचित व्यवस्था हो और केले को ज्यादा से ज्यादा फायदेमंद बनाने के लिए जरूरी है कि इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीकी से की जाए उससे आप लोगों को फायदा के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता की फसल मिलेगी. अगर फसल में कोई रोग नहीं होगा तो फसल अच्छी आएगी और फसल अच्छी आने पर आपको बाजार का रेट भी अच्छा मिलेगा. कोई भी फसल करने से पहले हमें अपने खेत की मिट्टी की जांच जरूर करा लेनी चाहिए उससे हमारा डबल फायदा होता है एक तो हमें बिना मतलब के कोई भी कीटनाशक और खाद नहीं डालना पड़ता ऊपर से हमारी पैदावार भी बढ़ जाती है क्योंकि जिस चीज की जरूरत हमारी मिट्टी और फसल को होती है फिर हम उसका उपचार उसी तरह से करते हैं.

केले की खेती के लिए मिट्टी का चुनाव

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मिट्टी का उपचार

पहले तो हमें अपने खेत की मिट्टी की जाँच करानी चाहिए उसके हिसाब से ही आगे की खाद या उपचार की व्यवस्था करानी चाहिए अगर भूमि की मिट्टी की जाँच संभव नहीं है तो नीचे लिखे तरीकें भी अपना सकते हैं. एक खाद जो सभी फसलों के लिए आवश्यक है वो केला की फसल के लिए भी बहुत उपयोगी है वो है गोबर की बनी हुई या सड़ी हुई खाद. 1. बिवेरिया बेसियान- पांच किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 250 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई या बनी हुई खाद में मिलाकर भूमि में प्रयोग करें। यदि खेत में सूत्र कृमि की समस्या है तो पेसिलोमाईसी (जैविक फंफूद) की पांच किलोग्राम मात्रा गोबर की सड़ी हुई खाद में मिलाकर करें। 2.जड़ गाठ सूत्र कृमि केले की फसल को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे फसल की वृद्धि रुक जाती है, एवं पौधे का पूरा पोषक तत्व नहीं मिल पाता है। खड़ी फसल नियंत्रण के लिए नीम की खली 250 ग्राम या कार्बोफ्यूरान 50 ग्राम प्रति पौधा (जड़ के पास) प्रयोग करें। 3.कीटों और बीमारियों से बचने के लिए खेत को बिल्कुल साफ सुथरा रखें, सत्रु कीटों की संख्या कम करने के लिए फसल के बीच बीच में रेडी या अरंडी के पौधे भी लगा सकते हैं। 4.मित्र जीवों की संख्य़ा बढ़ाने के लिए फूलदार वृक्ष (सूरजमुखी, गेंदा, धनिया, तिल्ली आदि) मेढ़ों के किनारे-किनारे लगा सकते हैं। 5.फसल तैयार होने की दशा में पत्ते और तनों के अवशेष खेत से हटाकर गड्ढों में दबाते रहें। फसल की लगातार निगरानी करें। 6.कीटों की संख्या कम करने के लिए पीला चिपचिपा पाष एवं लाइट ट्रैप का इस्तेमाल करें।

केले की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

केले की खेती केले की फसल 13-14 से लेकर 40 डिग्री तापमान तक हो सकती है लेकिन इसके लिए इससे ज्यादा तापमान फसल को झुलसा सकता है तो गर्मी में इसके विशेष देखभाल की जरूरत होती है. अच्छी बारिश की जगह पर ये अपने पूरे लय में होती है या कह सकते हो की बारिश वाली जगह इनके फलने फूलने के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है.

पोषक तत्व :

गोबर की खाद के साथ-साथ आप हरी खाद को भी इसमें मिला सकते हैं इससे आपको कम से कम रासायनिक खाद का प्रयोग करना पड़ेगा और फसल को भी पूर्ण पोषक तत्व मिल जायेंगें. हरी खाद में जैसे ढेंचा,लोबिया जैसी फलों का प्रयोग कर सकते हैं तथा 45 से 60 दिन के अंदर ही उनको रोटावेटर से जुताई करा दें. जिससे उसे जमीन में बारीक़ कण के साथ मिलने में  ज्यादा समय न लगे. केले को लगाने के लिए जून और जुलाई का महीना सही होता है क्यों की उस समय बारिश का मौसम आने लगता है इससे पौधे को ज़माने में दिक्कत नहीं होती है. पौधा ज़माने के बाद अपनी बढ़वार पकड़ने लगता है. जैसा की हमने ऊपर बताया है, टिश्यू कल्चर से लगाए गए पौधों की ग्रोथ अच्छी होती है तथा वो १ साल में ही फसल देने लगते हैं. जून के महीने में केले के पौधों के लिए गड्ढे खोदकर उनमे गोबर की बनी हुई खाद डाल दें अगर दीमक की समस्या हो तो उसका विशेष ध्यान रखें और उसमे दीमक का उपचार के लिए नीम या अन्य दवा का प्रयोग करें जिससे की केले की जड़ों को कोई नुकसान न हो.

केले की फसल का रखरखाब

केले की खेती केला की फसल लम्बी अवधी के लिए होती है तो उसके ध्यान भी उसी तरह रखना चाहिए जैसे उसकी हवा पानी, और निराई गुड़ाई का विशेष ध्यान रखें. कई किसान केले में मल्चिंग तकनीक को अपना रहे है इससे निराई गुड़ाई मजदूरों से नहीं करानी पड़ती है. लेकिन जो किसान सीधे खेत में रोपाई करवा रहे हैं वो रोपाई के ४-५ महीने बाद पौधों पर मिटटी जरूर चढ़ाएं. अगर पानी की निकासी का उचित प्रबंध नहीं होगा तो उससे पौधे को नुकसान हो सकता है इस स्थिति में ड्राप से सिंचाई का तरीका अपनाएं इससे आपको पानी पर भी ज्यादा खर्चा नहीं करना पड़ेगा.

पोषण प्रबंधन

केले की खेती में भूमि की ऊर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नाइट्रोजन,100 ग्राम फॉस्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। फॉस्फोरस की आधी मात्रा पौधरोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए। नाइट्रोजन की पूरी मात्रा पांच भागों में बांटकर अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर तथा फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए। एक हेक्टेयर में करीब 3,700 पुतियों की रोपाई करनी चाहिए। केले के बगल में निकलने वाली पुतियों को हटाते रहें। बरसात के दिनों में पेड़ों के अगल-बगल मिट्टी चढ़ाते रहें। सितम्बर महीने में विगलन रोग तथा अक्टूबर महीने में छीग टोका रोग के बचाव के लिए प्रोपोकोनेजॉल दवाई 1.5 एमएल प्रति लीटर पानी के हिसाब से पौधों पर छिड़काव करें
केले के उत्पादन को प्रभावित कर रही बढ़ती ठंड

केले के उत्पादन को प्रभावित कर रही बढ़ती ठंड

महाराष्ट्र राज्य के हिंगोली जनपद में बढ़ती ठंड केले के बागों को काफी प्रभावित कर रही है। इसकी वजह से केले की पैदावार में ३० फीसद तक घटोत्तरी की की आशंका व्यक्त की जा रही है। प्रदेशों के किसानों को काफी हानि हो रही है, इस समय ठंड काफी बढ़ गयी है। वहीं बढ़ती ठंड की वजह से कृषि फसलें काफी प्रभावित हो रही हैं। बढ़ती ठंड की वजह से हिंगोली जनपद में केले की खेती करने वाले किसान बहुत प्रभावित हुए हैं, जैसे कि ठंड की वजह से केले के वजन में घटोत्तरी हो रही है। केले के विकास में भी बाधा उत्पन्न हो रही है। केले की पैदावार में ३० फीसद तक की घटोत्तरी आने की संभावना हुई है, ठंड में बढ़ोत्तरी की वजह से केले का वजन कम हुआ है। प्रदेश के अधिकाँश भागों में तापमान में कमी आई है, इस वर्ष बढ़ती ठंड का प्रभाव केले के बागों पर ज्यादा दिख रहा है। वहीं ठंड में बढ़वार से बिक्री के लिए तैयार कच्चे केले के छिलके के कोशिकाएं खत्म हो जाती हैं, इस वजह से बाजार में केले का उचित व सही मूल्य नहीं मिल पाता है। इसका दुष्परिणाम किसानों को सहन करना पड़ता है।


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केले उत्पादन में कमी की क्या वजह है ?

इस वर्ष मराठवाड़ा में ठंड में काफी अधिक वृध्दि हुई है, इसका प्रभाव फसलों पर पड़ रहा है। सर्वाधिक केले के बाग प्रभावित होते हैं। ठंड की वजह से केले का बेहतर तरीके से उत्पादन नहीं हो पाता है। इससे केले का वजन तो घटता ही है, साथ ही बेचने हेतु तैयार कच्चे केलों के छिलकों की कोशिकाएं खत्म होने की वजह से केला पूर्णतः पकने के पहले पीला हो जाता है। परिणामस्वरूप, ऐसे केले को बाजार में बेहतर मूल्य अर्जित नहीं हो पाता है, इसी वजह से केला किसानों को काफी आर्थिक हानि हुई है। अनुमान है, कि इस सर्दी में केले के उत्पादन में ३० फीसद की कमी आ सकती है।

किसानों को क्यों हो रहा है नुकसान ?

बढ़ती ठंड की वजह से केले का सही विकास नहीं हो पाता है, केले की फली सही से नहीं उत्पादित हो पाती है। ऐसी हालत में केले की लंबाई में कमी व केले की फलियों के मध्य की दूरी में भी कमी आती है। किसानों ने कहा है, कि ठंड बढ़ने के कारण केले का रंग गहरा पीला न होने की वजह से बाजार में ऐसे केलों को कोई नहीं खरीदता। इससे किसानों को भारी हानि होती है, केले को २० से ३८ के मध्य तापमान की अत्यंत आवश्यकता होती है। किसानों के मुताबिक, अगर तापमान में इससे अधिक कमी आने से केले की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किसानों ने यह भी बताया है, कि जून व जुलाई की बिजाई के तुलनात्मक वजन लगभग ३० प्रतिशत तक घट सकता है।
केले की खेती करने वालों को इस नए नाशीकीट से खतरा

केले की खेती करने वालों को इस नए नाशीकीट से खतरा

केले की फसल में नवीन कीट की जाँच की गई है, जिसे फॉल आर्मीवर्म कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने इसको केले के पत्तों को खाते हुए देखा है। यह कीट प्रमुख रूप से मक्के की फसल के अंदर पाया जाता है। ऐसी स्थिति में कहा जा रहा है, कि ये वहीं से केले पर देखने को मिला हो। इसकी रोकथाम करने के लिए वैज्ञानिकों ने शोध चालू कर दिया है। भारत में बड़े स्तर पर केले का उत्पादन होता है। यह एक ऐसा फल है, जो बहुत सारी चीजों में उपयोग किया जाता है। पकने से पूर्व इसका उपयोग चिप्स और सब्जी निर्मित करने में किया जाता है। बतादें, कि पके हुए केले को साबुत तौर पर ही खाया जाता है। केला कैल्शियम, फास्फोरस और कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्त्रोत माना जाता है। 

केले के पत्ते बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाते हैं

सिर्फ इतना ही नहीं भारत में केले के पत्ते का भी काफी बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। इसको पूजा एवं भोजन परोसने के लिए उपयोग में लिया जाता है। परंतु, केले की खेती करना उतना भी सहज नहीं है। यदि केले की फसल में कोई रोग लग जाए अथवा कीट आक्रमण कर दे तो संपूर्ण फसल बर्बाद हो जाती है। ऐसी स्थिति में कृषकों को वक्त रहते इसकी रोकथाम के लिए उपाय कर लेने चाहिए, जिसे उन्हें नुकसान न उठाना पड़े।

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केले की फसल में नवीन नाशीकीट का पता कैसे करें

वर्तमान में वैज्ञानिकों ने केले की फसल में एक नवीन नाशीकीट का पता लगाया जा सके, जिसको फॉल आर्मीवर्म (स्पोडोप्टेरा फुजीपर्डा) कहा जाता है। यह एक आक्रामक कीट है, जो मुख्य तौर पर मक्के की फसल में पाए जाते हैं। लेकिन, वैज्ञानिकों ने इसे केले के पत्तों को खाता हुआ पाया गया है। इस कीट को आक्रामक इस वजह से कहा जाता है, क्योंकि यह टिड्डियों की भांति झुंड बनाकर फसल को चट कर जाते हैं। 

केले की इस प्रजाति पर कीट की मौजदगी दर्ज की गई

वैज्ञानिकों ने इसको केले पर अपना जीवनचक्र पूर्ण करते हुए पाया है। इसको तमिलनाडु के त्रिची जनपद में मक्का के खेतों के समीप केले के पौधों पर पाया गया है। यह संभावित है, कि यह मक्का से केले में आया हो। तमिलनाडु के करूर एवं तिरुचिरापल्ली जनपद में केले के पौधों के ऊपर बोंडार नेस्टिंग व्हाइटफ्लाई नामक एक विदेशी आक्रामक कीट का संक्रमण हाल ही में भारत में अधिसूचित किया गया है। इसी तरह बैगवर्म का गंभीर संक्रमण केले की कर्पूवल्ली प्रजाति पर देखा गया है। साथ ही, इस किस्म से समकुल 108 जननद्रव्यों की प्राप्तियों को इससे क्षतिग्रस्त पाया गया है।

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कीट संक्रमण को रोकने हेतु वैज्ञानिक शोध में जुटे हुए हैं

केले पर इस कीट के संक्रमण की यह प्रथम रिपोर्ट है। इसको सुपारी, नारियल एवं तेल-ताड़ समेत विभिन्न तरह के ताड़ वृक्षों के एक गंभीर कीट के तौर पर जाना जाता है। वैज्ञानिकों द्वारा इसपर नियंत्रण करने के लिए शोध आधारित कोशिशें की जा रही हैं, जिससे कि केले की फसल को इसके संक्रमण से वक्त रहते बचाया जा सके।